आपकी अपनी आवाज़!

UP

यह शरीर संसार से माता-पिता के माध्यम से आया : मोहन दास 

यह शरीर संसार से माता-पिता के माध्यम से आया : मोहन दास 

महाकुम्भ नगर, 22 जनवरी(हि.स.)। सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द परमहंस द्वारा संस्थापित संस्था सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् के तत्त्वावधान में महाकुम्भ मेला हरिश्चंद्र चौराहा स्थित शिविर में सत्संग सुनाते हुए महात्मा मोहन दास ने कहा, यह शरीर संसार से माता-पिता के माध्यम से आया है।

इस शरीर में रहने वाला और अपने को ‘मैं-मैं-मैं’ या ‘हम-हम-हम’ कहकर सम्बोधित करने वाला जीव माता-पिता से नहीं अपितु परमेश्वर से ईश्वरीय शक्ति के माध्यम से आयी है। शरीर और जीव दोनों मिलकर आदमी या मनुष्य कहलाता है जो एक समय में तीन विभागों में से किसी एक में अपने को स्थापित करके अपना जीवन चलाता है। ये तीनों विभाग हैं कर्म विभाग, योग-साधना अथवा अध्यात्म विभाग और तत्त्व विभाग।

महात्मा जी बताते हैं कि जिसमें कर्म प्रधान हो और भोग ही जिसकी अन्तिम उपलब्धि हो, नरक-स्वर्ग जिसकी अन्तिम गति हो, वह है कर्म विभाग। इस विभाग में कर्ता ही अपना स्वयं का जिम्मेदार होता है। जैसी उसकी करनी, वैसी उसको भरनी पड़ती है। पूजा पाठ, जप-तप, तीर्थ व्रत, हवन स्नान आदि इसके अन्तर्गत आता है। इससे जीवों को मोक्ष नहीं मिल सकता है।

जीव का आत्मा या ईश्वर से मिलने-जुलने और उस पर स्थित रहने की क्रिया-प्रक्रिया ही योग-साधना अथवा अध्यात्म विभाग है जिसमें आन्तरिक साधनात्मक क्रिया की प्रधानता रहती है और आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह का दर्शन एवं शान्ति और आनन्द मात्र ही इसकी अन्तिम उपलब्धि होती है। ब्रह्म लोक तक इसकी गति होती है, इससे भी मोक्ष नहीं मिल सकता है, ऐसे आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह से मिलन-जुलन करने वाले व्यक्ति को योगी या आध्यात्मिक साधक कहते हैं किन्तु इन दोनों से श्रेष्ठ अर्थात् सर्वश्रेष्ठ होता है।

भगवान श्रीविष्णु-राम-कृष्णजी वाले ‘तत्त्वज्ञान’ को ही पाने वाले महात्मा आगे बताते हैं कि संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी, प्रयोग और अभ्यास सहित सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड का सम्पूर्ण विधान समाहित हो जिसमें वह है ‘तत्त्व विभाग’। इसके अन्तर्गत परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह की प्रधानता होती है और मानव जीवन के चरम लक्ष्य रूप मुक्ति-अमरता (मोक्ष) का साक्षात् बोध व परम धाम या अमरलोक की प्राप्ति ही इसकी उपलब्धि है। इस विभाग में रहने-चलने वालों को ‘तत्त्वज्ञानी’ कहते हैं जो पूर्वोक्त सभी प्रकार के स्तर से श्रेष्ठ अर्थात् सर्वश्रेष्ठ जीवन वाला होता है। यही धारणा वास्तव में भगवदीय धारणा भी कहलाती है। प्रत्येक मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य तत्त्ववादी धारणा में ही स्थापित होना है। चौरासी लाख योनियों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा पाना इस ‘तत्त्ववादी धारणा’ मात्र के अन्तर्गत ही है। अतः मोक्ष के कामना रखने वाले मनुष्य को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य है कि सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द परमहंस द्वारा प्रदत्त ‘तत्त्वज्ञान’ के माध्यम से यह समाज लोक और परलोक दोनों की यथार्थतः जानकारी व स्थिति से युक्त होकर सर्वोच्च लाभ रूप अमन-चैन व सुख-समृद्धि सम्पन्नता वाला हो सके।